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इबादत क्या है?

 


इबादत क्या है?

 इबादत के मानी दुनिया के काम-काज से अलग होकर एक कोने में बैठ जाने और अल्लाह-अल्लाह करने के नहीं हैं, 

      बल्कि हक़ीक़त में इबादत के मानी यह हैं कि इस दुनिया में आप को जो कुछ भी नेएमते मिली है चाहे वह माल हो, इल्म हो, डिग्री हो, किसी पार्टी, संगठन या समाज का होद्दा या पद हो, या तंदुरुस्ती हो, या प्रतिष्ठा हो यह सब नेएमतों का अल्लाह के हुक्म और नबी के तरीके के मुताबिक इस्तेमाल करने का नाम इबादत है। अल्लाह की तरफ से मिली हुई नेएमतों का इस्तेमाल सिर्फ अपनी जिंदगी को संवारने के लिए इस्तेमाल करना मजहब के कानून के खिलाफ है अल्लाह की मर्जी के खिलाफ है।

   हक़ीक़त में इबादत के मानी यह हैं कि इस दुनिया में आप जो कुछ भी करें, खुदा के क़ानून के मुताबिक़ करें। आपका सोना और जागना, आपका खाना और पीना, आपका चलना और फिरना, मतलब कि सब कुछ ख़ुदा के क़ानून की पाबन्दी में हो। आप जब अपने घर में बीवी-बच्चों, भाई-बहनों और रिश्तेदारों के पास हों तो उनके साथ इस तरह पेश आएँ जिस तरह खुदा ने हुक्म दिया है। 

       जब अपने दोस्तों में हँसें और बोलें, उस वक़्त भी आपको ख़याल रहे कि हम ख़ुदा की बन्दगी से आज़ाद नहीं हैं। जब आप रोज़ी कमाने के लिए निकलें और लोगों से लेन-देन करें, उस वक़्त भी एक-एक बात और एक-एक काम में ख़ुदा के हुक्मों का ख़याल रखें और कभी उस हद से न बढ़ें जो खुदा ने तय कर दी है। जब आप रात के अंधेरे में हों और कोई गुनाह इस तरह कर सकते हों कि दुनिया में कोई आपको देखनेवाला न हो, उस वक़्त भी आपको याद रहे कि ख़ुदा आपको देख रहा है, और हक़ीक़त में डर उसी का होना चाहिए न कि दुनिया के लोगों का। जब आप जंगल में अकेले जा रहे हों और वहाँ कोई जुर्म इस तरह कर सकते हों कि किसी पुलिसमैन और किसी गवाह का खटका न हो तो उस वक़्त भी आप ख़ुदा को याद करके डर जाएँ और जुर्म से हाथ खींच लें। जब आप झूठ, बेईमानी और ज़ुल्म से बहुत-सा नफ़ा कमा सकते हों और कोई आपको रोकनेवाला न हो तो उस वक़्त भी आप ख़ुदा से डरें और उस फ़ायदे को इसलिए छोड़ दें कि खुदा इससे नाराज़ होगा। और जब सच्चाई और ईमानदारी में आपको सरासर नुकसान पहुँच रहा हो, उस वक़्त भी आप नुकसान उठाना पसन्द कर लें, सिर्फ़ इसलिए कि ख़ुदा इससे खुश होगा। 

    इस तरह सिर्फ़ दुनिया को छोड़कर कोनों और गोशों में जा बैठना और तसबीह हिलाना इबादत नहीं है, बल्कि दुनिया के धंधों में फँसकर ख़ुदा के क़ानून की पाबन्दी करना इबादत है। 

   अल्लाह के ज़िक्र का मतलब यह नहीं है कि ज़बान पर अल्लाह-अल्लाह जारी हो, बल्कि अस्ल अल्लाह का ज़िक्र यह है कि दुनिया के झगड़ों और बखेड़ों में फँसकर भी आपको हर वक़्त ख़ुदा याद रहे, जो चीजें ख़ुदा से ग़ाफ़िल करनेवाली हैं उनमें मशगूल न हों और फिर ख़ुदा से ग़ाफ़िल न हों। 

    दुनिया की ज़िन्दगी में जहाँ खुदाई क़ानून को तोड़ने के बहुत-से मौक़े बड़े-बड़े फ़ायदों के लालच और नुकसान का डर लिए हुए आते हैं, वहाँ आप ख़ुदा को याद करें और उसके क़ानून की पैरवी पर कायम रहें। यह है ख़ुदा की असली याद और इबादत। इसका नाम है इबादत, ज़िक्रे-इलाही और इसी ज़िक्र की तरफ़ क़ुरआन मजीद में इशारा किया गया है।




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